कहाँ चूक गई मैं ?
कहाँ हो गई भूल पथिक
जो कहते हो
मेरे अंचल से तुमने कंटक ही पाए
अपने इस मृदु अंचल में
पर कैसे यह चुभ गए तुम्हे ?
मेरे कोरे प्यार में
विष कहाँ घुल गया पथिक ?
मैंने तो बोना चाहा था
तुम्हारे आंगन में एक
हरा भरा वृक्ष
जहां तुम शांत विश्राम कर सको
पर तुम कहते हो उसकी छाया
तुम्हे बबूल सी मालूम होती है
हा! पथिक क्षमा
क्षमा पथिक !
अब जान गई हूँ
मेरी आकांक्षाएँ ही शायद
इस अंजुरी में भरे फूलों में
कंटक सी चुभ गई तुम्हें
और घुल गया मेरे प्रेम में स्वार्थ का विष
तभी उग आए हमारे आंगन में
बबूल
और मेरी राह तकती आँखे तुम्हे
प्रश्न सी खटकने लगीं
पर पथिक , बस इतनी सी विनती है
मुझे मेरी भूल सुधार लेने दो
बस एक बार फिर मुझे
तुम्हें अधिकार से निहार लेने दो
बेल सी तुमसे नहीं लिपटूँगी
वचन देती हूँ
उन्मुक्त तुम्हे तुम्हारे ही आकाश में विचरने दूँगी
और भी मिलेंगे तुम्हे हरे भरे वृक्ष
मुझे न शिकायत होगी
अपने आंचल में तुम्हे नहीं समेटूंगी
पथिक नही बनूँगी
तुम्हारे पथ की बाधा
बस हाँ
हाँ पथिक केवल पवन सी
रहूँगी तुम्हारी सहचरी
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