खिडकी से झांकती
सामने की दीवार पर
अठखेली करते रोशनी के कतरे
उस खिलखिलाती धूप की
याद दिलाते हैं
जो अम्बर की खुली छत के नीचे
धरती के असीम आँगन पर फैली है ।
है क्या यह?
रिश्ते-बंधन-संरक्षण -परम्परा ?
या कोरी जड़ता?
अथवा स्वयं में पनपी असुरक्षा
जब परम्परा अपनी नींव से उखड कर
पुन; स्वयं को प्रतिष्ठित
करने की कोशिश में
सड़ांध मारती एक लाश सी हो जाती है
तब, हाँ तब वह छीन लेती है
व्यक्तियों से उनका अनंत क्षितिज
और धरा का सुन्दर-मृदुल विस्तार
और व्यक्ति के व्यक्तित्व का वैराट्य
और बिठा देती है उन पर संस्कृति के पहरे
डाल देती है खिड़की और दीवारों पर परदे
और ढक देती है चेहरों पर घूंघट और नकाब
No comments:
Post a Comment