मैं लौट रही हूँ अपने प्रांगण में
बरसों बाद एक आस लिए
कूदते फुदकते वो लम्हे ले कर
लौट आयी है वो मृदु स्मृतियाँ भी
मिलेंगे शायद वो मीत वही
अपने बालो में अनुभव की सफेदी लिए
कुछ परिचित, कुछ अपरिचित
कुछ अपरिचित हो कर भी परिचित
मन में बस एक आस लिए
जी लेने को पुनः वो लम्हे
जिनमे घिरी रहती हैं मेरी शाम अक्सर
बहुत समय बाद ,हमजोलियों की टोली होगी
हँसी और ठहाके होंगे
भोली शरारतों की स्मृतियाँ
फिर मन को गुदगुदा जाएँगी
पुरानी गप्पे फिर दोहराई जाएंगी
एक दुसरे के राज़, कई हमजोली खोलेंगे
बहुत कुछ हम एकदूसरे से बिना बोले ,बोलेंगे
वो शाम जानती हूँ मुझे मुझसे मिला जाएगी
इसलिए एक बार फिर अतीत के पन्ने पलटने को
मन में एक उमंग ,पाँव में एक थिरकन लिए
लौट रहीं हूँ आज मैं अपने प्रांगण में
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