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Tuesday, June 25, 2013

केदारनाथ जून 2013

ना आता है गुस्सा
ना ही आंसू फूटते हैं
नि:स्तब्ध देखती हूँ
ईश्वर के द्वार  पर 
जलती चिताओं पर 
सत्ता की रोटी पकते 
क्या कहूं क्या लिखूं 
मन का चीत्कार
उस ईश्वर से भी क्या कहूं
जो आज मूक है 
हर तरफ हा हा कार मचाकर   



 

Monday, June 10, 2013

कभी मान भी अपमान सा लगता है

कभी मान भी अपमान सा लगता है 
घर की बेटी होना भी अपराध सा लगता है 
उन संस्कारों पर प्रश्नचिंह सा लगता है 
जब अपना आप भी पराया सा लगता है 
परम्परा की वेदी पर बलि सा अपना आप लगता है 
मनघट पर हर कदम दायरा सा लगता है
मनीषा

Sunday, June 9, 2013

मन में दर्द की गठरी लिए

मन में 
दर्द की गठरी लिए 
जाने कब तक जीना 
इस जीवन का बोझ
न जाने कब तक है ढोना 
नित उठ कर बस 
उसांस भर 
कर्म के क्रम में न जाने 
कब तक है जुटना 
न जाने कब तक है जीना 
इस पार तो दायित्व है
कर्म का पुलिंदा हैउस पार न जानेकितना है कॊई अकेलाहम तो रो लेते हैंचुपचाप चुपचापकह सुन लेते हैंइक दूजे से भी मन की बातउस काल परदे के पीछे सेक्या जाने वो भी देते हों हमें आवाज़बिन मीतन जाने कब तक और है जीनाइस जीवन की गठरी कोकब तक है ढोनामनीषा

लौटी हूँ बरसों में

लौटी हूँ बरसों में 
फिर रिश्तो के ताने बाने 
गुथने होंगे 
मन के दायरे
फिर बुनने होंगे 

Friday, June 7, 2013

एक सोच :क्या फर्क पड़ता है

हम जाते हैं 
अफ़सोस जताने और करते है 
बहुत वाद विवाद उस पर जो 
जाने क्यों ज़रूरी है 

"चूड़ियाँ तोड़ दो 
बिछिये उतार दो 
बिंदी सिन्दूर मिटा दो 
चूल्हा मत जलाना 
बेटी से मत उठवाना 
जिस रस्ते गए थे 
उस रस्ते मत आना 
कपड़ा  मत धोना 
नया मत पहनना 
यह मत खाना 
अरे तुम  मत पकाना "

क्या फर्क पड़ता है 
इस  सब से 
क्या जाने वाला लौट आता है ?
मृत्यु हार जाती है जीवन से ?
इतने नियमों के पालन से 
संस्कारों को जीने मरने का प्रश्न मत बनाओ 
केवल उत्तरदायित्व निभाओ 


किस वेद  में लिखा है 
किस उपनिषद में 
मन को दुखाना उचित है?
फिर भी हम निभाते जाते है 
जाने किस मोक्ष के भ्रम में 
करते जाते हैं अनाचार 
वाद विवाद 
उस पर जो शायद अब सिर्फ रूढी  है 

बस करो , मन दुखता है ...
करो सिर्फ उतना जो ज़रूरी है 
एक नया जीवन 
जीने के लिए 
मनीषा 

Thursday, June 6, 2013

शब्द कितने अर्थहीन

शब्द कितने अर्थहीन
हारते जाना पल पल
इस  समय चक्र में
शब्द मय  भुलावे सभी
व्यर्थ का अदान प्रदान
दिलासे सभी
अश्रु पूरित चेहरों को लौटा नही
पाते फिर वही हँसी वही ख़ुशी
जीवन अंत या अनंत
शब्दों में बंधा एक प्रश्न चिन्ह
निरूत्तर सा सुबह शाम मन को घेरता सा

शब्द कोष वेद  उपनिषद
खंगाल डाले सभी
रीती -रिवाजों के बन्धन
भी डाले सभी
पर कहाँ मिलता है
उत्तर कहीं
मानो  तो सब है उस पार
न मानो  तो कुछ नहीं
अग्नि जल वायु आकाश धरा
सब खोजा बहुत पुकारा भी
मिलता है तो सिर्फ छलावा
एक भुलावा
जीने का बहाना
जीवन  में बस चलते जाना
अपने  पथ पर ढलते जाना
श्वास रुकने तक बस
उत्तर खोजते जाना


मनीषा