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Sunday, November 20, 2022

तुम छूटीं तो जग छूटा

 तुम छूटीं तो जग छूटा।

जो था अपना हुआ सब पराया।

जग भर घूमी,

अपना, एक, आंगन ना पाया

तुम छूटीं तो मेरी धूरी छूटी,

किसी ठौर ठिकाना ना पाया।


ना पसरा फिर कोई आंचर

ना किसी ने अंक लगाया 

आशीष मिले प्यार मिला

तुम सा दुलार बस नहीं पाया

तुम छूटीं तो देहरी छूटी

किसी द्वार फिर ना शीश नवाया।


तुम छूटीं तो जग छूटा 

जो था अपना हुआ सब पराया।


मनीषा वर्मा 

#गुफ्तगू

एक डोर

 मां से एक डोर सी बंधी रहती है

कहीं भी उड़ लें वापिस 

घर लौट जाने की बेचैनी बनी रहती है।


छुट्टियों की आस रहती है

आंगन की याद बनी रहती है 

छोटे बड़े सबकी खबर मिलती रहती है

अड़ोस पड़ोस की गप्प पता रहती हैं


मां से एक डोर सी बंधी रहती है

कहीं भी उड़ लें वापिस 

घर  लौट जाने की बेचैनी बनी रहती है।


मुलाकातों का मकसद सा रहता है 

फ़ोन करने उठाने का नियम सा बना रहता है।

बाबूजी से शिकायत सी बनी रहती है

बटुए भरे भी हों पर  मां से  मांगने की ज़रूरत बनी रहती है 


मां से एक डोर सी बंधी रहती है

कहीं भी उड़ लें वापिस 

घर  लौट जाने की बेचैनी बनी रहती है।


मनीषा वर्मा 

#गुफ्तगू

मन भर आया

 तुम कितना खुश होती

बस यही सोच कर दिल भर आया।

कभी सोचा तुम इस पर ज़रूर डांटती

और फिर दिल भर आया।


ना तुम नहीं ऐसा करती

अरे कभी नहीं मानती मेरी

बस यही सोच कर दिल भर आया ।


मुझे तो आज जरूर डांटती,

अभी होती तो जरूर समझाती

और फिर मेरा दिल भर आया।


तुम से पूछ लेती सलाह कर लेती,

यह बात तो तुम्हीं से कह सकती थी

हर अनकही बात पर दिल भर आया।


आज ज़रा सा तुम मेरा सिर सहला देती

मेरी दुखते मन को बहला देती

बस यही सोच कर मन भर आया।


मेरी खुशी में तुम इतराती 

मेरे दुःख से दुखी हो जाती

तुम होती तो त्योहार होते 

कुछ ना कुछ भाई भाभी से मान मनुहार होते 

बस आज यही सोच कर मन भर आया।


मनीषा वर्मा


गुफ्तगू


20.11.2000