तेरे आँगन की छाँव नहीं सहन होती
मुझे धूप की तपिश की आदत सी हो गई है
कुछ टूटा सा था तो
मन के आगे कुछ सलाखें सी बो दी थी
कुछ मौसम पहले
इन बरसातों में पहरों की उसे आदत सी हो गई है
अब मत खटखटाना मेरा द्वार
मत पुकारना मुझे
अपने भावुक बोलों से
मुझे सन्नाटों कि आदत सी हो गई है
बहुत दूर निकल आई हूँ इन राहों में
अकेले चलते चलते
अब तेरी आदत कुछ छूट सी गई है
बड़ी देर से आए हैं
वो सुलझाने बिगड़ी बात
अब तो इस दर्द की आदत सी हो गई
मन पर लगी सांकल है
बहुत भारी
अब किवाड़ खोलने में डर लगता है
इन दस्तकों की आवाज़ से काँप जाती हूँ
तन्हाईयों कि आदत सी हो गई है
मनीषा
मुझे धूप की तपिश की आदत सी हो गई है
कुछ टूटा सा था तो
मन के आगे कुछ सलाखें सी बो दी थी
कुछ मौसम पहले
इन बरसातों में पहरों की उसे आदत सी हो गई है
अब मत खटखटाना मेरा द्वार
मत पुकारना मुझे
अपने भावुक बोलों से
मुझे सन्नाटों कि आदत सी हो गई है
बहुत दूर निकल आई हूँ इन राहों में
अकेले चलते चलते
अब तेरी आदत कुछ छूट सी गई है
बड़ी देर से आए हैं
वो सुलझाने बिगड़ी बात
अब तो इस दर्द की आदत सी हो गई
मन पर लगी सांकल है
बहुत भारी
अब किवाड़ खोलने में डर लगता है
इन दस्तकों की आवाज़ से काँप जाती हूँ
तन्हाईयों कि आदत सी हो गई है
मनीषा